हज़ूम-ए-गम मेरी फितरत बदल नहीं सकती “फराज़”,
मैं क्या करूं मुझे आदत है मुसकुराने की
वो ज़हर देता तो दुनीया की नज़रों में आ जाता “फराज़”
सो उसने यूँ किया के वक़्त पे दवा न दी
हज़ूम-ए-गम मेरी फितरत बदल नहीं सकती “फराज़”,
मैं क्या करूं मुझे आदत है मुसकुराने की
वो ज़हर देता तो दुनीया की नज़रों में आ जाता “फराज़”
सो उसने यूँ किया के वक़्त पे दवा न दी